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________________ कषाय सुह-दुक्खसहियं, कम्मखेत्तं कसन्ति जे जम्हा। कलुसंति जं च जीवं, तेण कसाय त्ति वुच्चंति ॥ -प्रज्ञापनापद १३, टीका सुख-दुःख के फलयोग्य-ऐसे कर्मक्षेत्र का जो कर्षण करता है, और जो जीव को कलुपित करता है, उसे कषाय कहते हैं । २. होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो, तध ण पित्तउम्मत्तो। - भगवतो आराधना १३१ वात, पित्त आदि विकारों से मनुष्य वैसा उन्मत्त नहीं होता, जैसा कि कषायों से उन्मत्त होता है। कषायोन्मत्त ही वस्तुतः उन्मत्त है। जस्स वि अ दुप्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सीवि व गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ।। -दशवकालिकनियुक्ति ३०० जिस तपस्वी ने कपायों को निगृहीत नहीं किया, वह बालतपस्वी है, उसके तपरूप में किए गए सब कायकष्ट गजस्नान की तरह व्यर्थ हैं। सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामन्नं ॥ -दशवकालिकनियुक्ति ३०१ 5.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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