________________
X
जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ ५. अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं ।
-प्रश्न० २।३ अपने को अपरिग्रह भावना से संवृत (संयत) बनाकर लोक में
विचरण करना चाहिए। ६. जे सिया सन्निहिकामे, गिही पव्वइए न से
-दशवकालिक ६।१६ जो सदा संग्रह की भावना रखता है वह साधु नही, कितु (साधुवेष में) गृहस्थ ही है। ७. मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।
- दशवकालिक ६२१ मूर्छा को ही वस्तुतः परिग्रह कहा है । 51 मूर्छा परिग्रहः
-तत्वार्थसूत्र ७१२ मूर्छा ही परिग्रह है। ६. अध्यात्मविदो मूर्छा परिग्रहं वर्णयन्ति ।
-प्रशमरति अध्यात्मवेना वास्तव मे मूर्छा को ही परिग्रह बताते है । १०. प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ।
-सूत्रकृतांगटीका ११११ परिग्रह (अज्ञानियों के लिए तो क्या) बुद्धिमानो के लिए भी
मगर की तरह क्लेश एवं विनाश का कारण है। ५११: किं न क्लेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रवृद्धिंगतः ।
-सिन्दूरप्रकरण ४१ नदी के वेग की तरह बढा हुआ परिग्रह भी क्या-क्या क्लेश पैदा नही करता?