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१.
२.
३.
४.
बहुपि लघु न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसविकज्जा ।
अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे । परिग्रह - वृत्ति से अपने को दूर रखे ।
अपरिग्रह
परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसि पवड्ढई ।
लोभ-कलि-कमाय-महक्खंधो, चिंतासयनिचयविपुलसालो ।
- आचारांग १।२५
- सूत्रकृतांग १।६।३
जो परिग्रह (संग्रहवृत्ति) में फँसे है, वे संसार में अपने प्रति बैर
ही बढाते है ।
- प्रश्न ० ११५
परिग्रह रूपी वृक्ष के स्कन्ध अर्थात् तने हे – लोभ, क्लेश और कपाय | चिन्ता रूपी सैकड़ो ही सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखा है ।
नत्थि एरिसो पासो पडबंधो अत्थि, सव्वजीवाणं सव्वलोए ।
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- प्रश्न० ११५
संसार मे परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है ।