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जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ कम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, भ्रमिग्लानिर्बलक्षयः । राजयक्ष्मादि रोगाश्च, भवेयुमैथुनोत्थिताः ॥
-योगशास्त्र २।७८ मैथुन से कँप-कपी, स्वेद-पसीना, श्रम-थकावट, मूर्जा-मोह भ्रमिचक्कर आना, ग्लानि-अंगों का टूटना, शक्ति का विनाश, राज्ययक्ष्मा-क्षयरोग तथा अन्य खाँसी, श्वास आदि रोगों की
उत्पत्ति होती है। १५. कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजः।
-योगशास्त्र ११४७ समानकुल और समानशीलवाली अन्य गोत्र में उत्पन्न कन्या के
साथ विवाह करनेवाला आदर्श गृहस्थ होता है । १६. धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत ।
-नीतिवाक्यामृत ३२ धर्म और धन का नाश न करते हुए काम का सेवन करना
उचित है। १७. प्राणसंदेह - जननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धच, परस्त्रीगमनं त्यजेत् ॥
-योगशास्त्र २९७ परस्त्रीगमन प्राण-नाश के सन्देह को उत्पन्न करनेवाला है, परम वर का कारण है और इहलोक-परलोक-ऐसे दोनों लोकों
को नष्ट करनेवाला है, अत: परस्त्रीगमन को त्याग देना चाहिए। १८. सर्वस्वहरणं बन्धं, शरीरावयवच्छिदाम् । मृतश्च नरकं घोरं, लभते पारदारिकः ॥
-योगशास्त्र २८ परस्त्रीगामी पुरुष को यहाँ सर्व धन का नाश, जेल आदि का बन्धन एवं शरीर के अवयवों का छेदन प्राप्त होता है और वह मरकर घोर नरक में जाता है।