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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १४. सच्चं पि य सजमस्स उवरोहकारकं किंचि वि न वत्तव्वं ।
-प्रश्नव्याकरण २२ सत्य भी यदि सयम का घातक हो तो नही बोलना चाहिए । १५. अप्पणो थवणा, परेसु निंदा।।
-प्रश्नव्याकरण २१२ ___ अपनी प्रशसा और दूसरो की निन्दा भी असत्य के हो समकक्ष है। १६. काय-वाङ्-मनसामृजुत्वमविसवादित्व च सत्यम् ।
-मनोनुशासनम् ६३ शरीर, वचन एव मन की सरलता तथा अविसवादित्व (कथनी___ करणी मे एकरूपता) को सत्य कहा जाता है। १७. अणुमाय पि मेहावी, माया मोसं विवज्जए।
-दशवकालिक ॥२॥५१ आत्मविद् साधक अणुमात्र भी माया-मृषा (दम्भ और असत्य) का
सेवन न करे। १८. विसस्सणिज्जो माया व होइ, पुज्जो गुरुव्व लोअस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पियो॥
-भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक ६६ सत्यवादी माता की तरह विश्वासपात्र होता है, गुरु की तरह लोगो का पूज्य होता है, तथा स्वजन की तरह वह सभी को प्रिय
लगता है। १६. सच्चं जसस्स मूलं, सच्चं विस्सासकारण परम ।
सच्चं सग्गद्दारं, सच्च सिद्धीइ सोमाणं ।
. .- धर्मसंग्रह अधिकार २ श्लोक २६ टीका सत्य यश का मूलकारण है। सत्य ही विश्वास प्राप्ति का मुख्य साधक है । सत्य स्वर्ग का द्वार है एवं सिद्धि का सोपान है।