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________________ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं भावेन उस हिंसा-व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण अनवद्य निष्पाप है। ३७. जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडच्च जे सत्ता । वावज्जते नियमा, तेसिं सो हिंसओ होइ । जे वि न वावज्जंती. नियमा तेसि पि हिंसओ सो उ । सवज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ।। - ओघनियुक्ति ७५२१५३ जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चितरूप से उन सबका हिंसक होता है। परन्तु जो प्राणी नही मारे गये है, वह प्रमत्त उनका भी हिंसक ही है; क्योंकि वह अन्तर में तो सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सावध है-पापात्मा है। ३८. आया चेव अहिंसा, आया हिंसात्त निच्छओ एसो। जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो।। - ओघनियुक्ति ७५४ निश्चय दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त है वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है वह अहिंसक। न य हिंसामेत्तेणं, सावज्जेणावि हिंसओ होइ। सुद्धस्स उ सम्पत्ती, अफला भणिया जिणवरेहि ।। - ओघनियुक्ति ७५८ केवल बाहर में दृश्यमान हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। यदि साधक अन्दर में रागद्वेष से रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसको बाहर की हिंसा को कर्मबन्ध का हेतु न होने से निष्फल बताया है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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