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अहिंसा
४०. जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होई निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥
-ओपनियुक्ति ७५९ जो यतनावान साधक अन्तर-विशुद्धि से युक्त है, और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होनेवाली विराधना (हिंसा) भी कर्म-निर्जरा का कारण है।
मरदु व जियदु व जीवो,
अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स पत्थि बंधो। हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।
--प्रवचन० ३।१७ बाहर में प्राणी मरे या जीये, अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर में हिंसा निश्चित है। परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवाला है, उसको बाहर में प्राणी की हिंसा होने
मात्र से कर्मबन्ध नहीं है, अर्थात् वह हिंसा नहीं है । ४२. चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो।
-प्रवचन० ३३१८ यदि साधक प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल में
कमल की भांति निर्लेप रहता है। ४३. काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ।
बृहत्कल्पमाष्य १३१६ अपने द्वारा किसी प्राणी को कष्ट पहुंचाने पर भी, जिसके मन
में पश्चात्ताप नहीं होता, उसे निष्कृप-निर्दय कहा जाता है। ४४. जो उ परं कंपंतं, दळूण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं ।
-गृहत्कल्पभाष्य १३२०