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अहिंसा
सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ।
–आधारांगनियुक्ति ६४ ___कुछ लोग अपने सुख की खोज में दूसरों को दुःख पहुंचा देते हैं । ३४. हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा।।
-दशवकालिकनियुक्ति ४५ हिंसा का प्रतिपक्ष-अहिंसा है। ३५. अज्झत्थ विसोहीए, जीवनिकाएहि संथडे लोए । देसियहिंसगत्तं, जिणेहि तेलोक्कदरिसीहिं ।
-ओघनियुक्ति ७४७ त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकानेक जीवसमूहों से पग्व्यिाप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्मविशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्यहिंसा या अहिसा की दृष्टि से नही। उच्चलियंमि पाए
ईरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी,
मज्जि तं जोगमासज्ज ॥ न य तस्स तन्निमित्तो
बंधो मुहुमोवि देसिओ समए । अणवज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ।।
-ओघनियुक्ति ७४८-४६ कभी-कभार ईर्यासमितियुक्त साधु के पैर के नीचे भी कीट, पतंग आदि क्ष द्र प्राणी आजाते है और दबकर मर भी जाते हैं
परन्तु.उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म भी कर्मबंध नही बताया है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतो