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महिंसा १०. से हु पन्नाणमंते बुद्ध आरम्भोवरए।
-आचारांग १।४।४ जो आरम्भ (हिंसा) से उपरत है, वही प्रज्ञानवान बुद्ध है। ११. तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्नसि ।
तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि । तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि ।
-आचारांग ११५१५ जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तु शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। [स्वरूपदृष्टि से सब चैतन्य एक समान है—यह अद्वैतभावना
ही अहिंसा का मूलाधार है। १२. जेवन्ने एएहि काएहिं दंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो।
-आचारांग १११ यदि कोई अन्य व्यक्ति भी धर्म के नामपर जीवों की हिंसा करते
हैं, तो हम इससे भी लज्जानुभूति करते हैं । १३. तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया।
-सूत्रकृतांग १।१।१।१४ परपीड़ा में लगे हुए अज्ञानी-जीव अन्धकार से अन्धकार की ओर
जा रहे हैं । १४. एयं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चेव, एतावत्तं वियाणिया ।।
-सूत्रकृतांग १।१।११० ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न