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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए ।
-आचारांग १३१२ यह आरम्भ (हिंसा) ही वस्तुतः ग्रन्थ-बन्धन है, यही मोह है, यही मार-मृत्यु है, और यही नरक है।
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । एयं तुलमन्नेसिं ।
-आचारांग ११११४ जो अपने अन्दर (अपने सुख-दुख की अनुभूति) को जानता है, वह बाहर (दूसरों के सुख-दुख की अनुभूति) को भो जानता है । जो बाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है। इस प्रकार दोनों को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिये ।
अप्पेगे हिंसिसु मे ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसति मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिसिस्संति मे त्तिवा वहति ।
-आचारांग ११२।६ 'इसने मुझे मारा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं। 'यह मुझे मारता है'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं । 'यह मुझे मारेगा-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं । जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।
- आचारांग २४ प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दु.ख अपना अपना है।