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बहिंसा
अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्यं परेण परं।
-आचारांग १२३४ शस्त्र(-हिंसा) एक से एक बढ़कर है । परन्तु अशस्त्र(= अहिंसा) एक-से-एक बढ़कर नहीं है, अर्थात् अहिंसा की साधना से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरी कोई साधना नहीं है।
वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परुवेमो, एवं पण्णवेमो,
सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिघेतव्वा, न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । इत्थं विजाणह नत्थित्थ दोसो। आरियवयणमेयं ।
-आचारांग ११४२ हम ऐसा कहते है, ऐसा बोलते है, ऐसी प्ररूपणा करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं किकिसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिये, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिये, न उनको गुलामों की तरह पराधीन बनाना चाहिये, न उन्हें परिताप देना चाहिये और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए। उक्त अहिंसा धर्म में किसी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान में रखिये । अहिंसा वस्तुतः आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है ।