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________________ धर्म ४०. ४१. ४२ ४३. २७ जैनों को व्यवहार के लिए लौकिकविधि —— रीतिरिवाज को ही मान्य करना चाहिए, बशर्ते कि उसमें सम्यक्त्व की हानि न हो, एवं व्रतों में दोष न लगे । पीइकरो वनकरो, भासकरो जसकरो रइकरो य । अभयकरो निव्वुइकरो, परत वि अज्जिओ धम्मो ॥ - तन्दुलवैचारिक ३४ यह आर्यधर्म इह - परलोक में प्रीति, वर्ण - कीर्ति या रूप, भास—तेजस्विता या मिष्टवाणी, यश, रति, अभय एवं निर्वृत्तिआत्मिक सुख का करनेवाला है । अबन्धूनामसौ बन्धु - रसखीनामसौ सखा । अनाथानामसौ नाथो, धर्मो विश्वैकवत्सलः ॥ - योगशास्त्र ४।१०० यह धर्म अबन्धुओं का बन्धु है, अमित्रों का मित्र है और अनाथों का नाथ है । अत: यही जगत में परमवत्सल है । । संकल्प्य कल्पवृक्षस्य, चिन्त्यं चिन्तामणेरपि । अमंकल्प्य मसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥ - आत्मानुशासन २२ कल्पवृक्ष से संकल्प किया हुआ और चिन्तामणि से चिन्तन किया हुआ पदार्थ प्राप्त होता है, किन्तु धर्म से असंकल्प्य एवं अचिन्त्य फल मिलता है । दिव्वं च गइ गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं । - उत्तराध्ययन १६।२५ आर्य धर्म का आचरण कर के महापुरुष दिव्य गति को प्राप्त होते हैं ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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