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________________ २८ ४४. ४५. ४६. ४७. 85. जैनधर्म की हजार शिक्षाए प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दनानन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविता चातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धि, किं नु ब्रूमः फलपरिणति धर्मकल्पद्र मस्य ॥ - शान्तसुधारस-धर्मभावना विशाल राज्य, सुभग स्त्री, पुत्रो के पुत्र-पोते, सुन्दररूप, सरस कविता, निपुणता, मीठास्वर, नीरोगता, गुणों से प्रेम, सज्जनता सद्बुद्धि – ये सभी धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल है, एक जीभ से कितना कहा जाय ? दानं च शीलं च तपश्च भावो, धर्मश्चतुर्धा जिनबान्धवेन निरूपितः ।। - शान्तसुधारस सर्वज्ञ भगवान् ने दान, शील, तप और भावना - ऐसे चार प्रकार धर्म कहा है । मरणं पि । सुग्गई जंति ।। - उपदेशमाला ४४३ तव - नियमसुट्ठियाणं, कल्लाणं जीवियंपि जीवंतज्जति गुणा, मया पुण तप-नियम रूप धर्म मे रहे हुये जीवो का जीना और मरना दोनों ही अच्छे है । जीवित रहकर तो वे गुणो का अर्जन करते है और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते है । धर्मे धर्मोपदेष्टारः, साक्षिमात्रं शुभात्मनाम् । — त्रिषष्ठिशलाका० ० २३ धर्मात्माओं को धर्म मे प्रेरित करने के लिये उपदेशक तो साक्षिमात्र ही होते है । - जैनसिद्धान्तदीपिका ७२३ आत्मशुद्धि-साधनं धर्मः । जिससे आत्मा की शुद्धि हो, उसे धर्म कहते है |
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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