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जैनधर्म की हजार शिक्षाए
प्राज्यं राज्यं सुभगदयिता नन्दनानन्दनानां, रम्यं रूपं सरसकविता चातुरी सुस्वरत्वम् । नीरोगत्वं गुणपरिचयः सज्जनत्वं सुबुद्धि, किं नु ब्रूमः फलपरिणति धर्मकल्पद्र मस्य ॥ - शान्तसुधारस-धर्मभावना विशाल राज्य, सुभग स्त्री, पुत्रो के पुत्र-पोते, सुन्दररूप, सरस कविता, निपुणता, मीठास्वर, नीरोगता, गुणों से प्रेम, सज्जनता सद्बुद्धि – ये सभी धर्मरूपी कल्पवृक्ष के फल है, एक जीभ से कितना कहा जाय ?
दानं च शीलं च तपश्च भावो, धर्मश्चतुर्धा जिनबान्धवेन निरूपितः ।।
- शान्तसुधारस सर्वज्ञ भगवान् ने दान, शील, तप और भावना - ऐसे चार प्रकार धर्म कहा है ।
मरणं पि । सुग्गई जंति ।।
- उपदेशमाला ४४३
तव - नियमसुट्ठियाणं, कल्लाणं जीवियंपि जीवंतज्जति गुणा, मया पुण
तप-नियम रूप धर्म मे रहे हुये जीवो का जीना और मरना दोनों ही अच्छे है । जीवित रहकर तो वे गुणो का अर्जन करते है और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते है ।
धर्मे धर्मोपदेष्टारः, साक्षिमात्रं शुभात्मनाम् । — त्रिषष्ठिशलाका० ० २३ धर्मात्माओं को धर्म मे प्रेरित करने के लिये उपदेशक तो साक्षिमात्र ही होते है ।
- जैनसिद्धान्तदीपिका ७२३
आत्मशुद्धि-साधनं धर्मः । जिससे आत्मा की शुद्धि हो, उसे धर्म कहते है |