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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं २२. तं तह दुल्लहलंभ, विज्जुलया चंचलं माणुसत्तं । लद्ध ण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो।।
-आव०नि० ८३७ जो बड़ी मुश्किल से मिलता है, विजली की तरह चंचल है, ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म-साधना में प्रमत्त रहता है। वह कापुरुष (अधम पुरुष) ही है, सत्पुरुष नहीं।
आदा धम्मो मुणेदव्वो।
२३.
-प्रवचनसार १५
आत्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मस्वरूप होता है। २४. किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदि णिप्फलो परमो।
----प्रवचन० २।२४ संसार की कोई भी मोहात्मक क्रिया निष्फल (बन्धन-रहित) नहीं है । एकमात्र धर्म ही निष्फल है, अर्थात् स्व-स्वभाव रूप होने से बन्धन का हेतु नहीं है । दसणमूलो धम्मो ।
-वर्शनपाहुर २ धर्म का मूल दर्शन–(सम्यक् श्रद्धा) है । २६. धम्मस्स मूलं विणयं वदन्ति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए ।
-ह. भाष्य ४४४१ धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है । २७. धम्मा-धम्मा न परप्पसाय-कोपाणुवत्तिओ जम्हा ।
-विशेषा० भा० ३२५४ धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है । दूसरों की प्रसन्नता और नाराजगी पर उसकी व्यवस्था नहीं है।