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धर्म ही मनुष्य का सच्चा बंधु है मित्र है, और गुरु है। इसलिए स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख देनेवाले धर्म में बुद्धि को स्थिर करना
चाहिए। १८. धम्मंमि जो दढमई, सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । ___ण हु धम्मणिरुस्साहो, पुरिसो सूरो सुबलिओऽवि ।
-सूत्र० नि० ६० जो व्यक्ति धर्म में दृढ़ निष्ठा रखता है, वस्तुतः वही बलवान है, वही शूरवीर है । जो धर्म में उत्साहहीन है, वह वीर एवं बलवान होते हुए भी न वीर है, न बलवान है ।। ___ धम्मो अत्थो कामो, भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा ।।
-दशवै० नि० २६२ धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान
में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न=अविरोधी हैं । २०. जिणवयणंमि परिणाए, अवत्थविहिआणुठाणवो धम्मो। सच्छासयप्पयोगा अत्थो, वीसंभओ कामो ॥
- दशवै० नि० २६४ अपनी-अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छ आशय से प्रयुक्त अर्थ, विस्र भयुक्त (मर्यादानुकूल वैवाहिक नियंत्रण से स्वीकृत) काम—जिनवाणी के अनुसार ये परस्पर
अविरोधी हैं। २१. ण कुणइ पारत्तहियं, सो सोयइ संकमणकाले ।
-आव०नि० ८३७ जो इस जन्म में परलोक की हित साधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता है।