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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं
धर्म ही रक्षा करनेवाला है, उसके सिवा विश्व
राजन् ! एक में कोई भी मनुष्य का त्राता नहीं हैं ।
पन्ना समिक्ख धम्मं ।
-उत्त० २३।२५
साधक की अपनी प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर
सकती है ।
विन्नाणेण समागम्म, धम्म साहणमिच्छिउ ।
—उत्त० २३।३१
विज्ञान ( विवेक - ज्ञान) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है । पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं ।
-उत्त० २३।३२ धर्मों के वेष आदि के नाना विकल्प जन साधारण में प्रत्यय ( परिचय - पहचान ) के लिए है ।
जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।
-उत्त० २३०६८
जरा और मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा आधार है, गति है और उत्तम शरण है ।
नाणसारियं बिति । निव्वाणं || -आचा० नि० २४४
च
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१६. लोगस्स सारं धम्मो, धम्मं पिय नाणं संजमसारं संजमसारं
विश्व – सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान (सम्यग्बोध ) है, ज्ञान का सार संयम है, और संयम का सार निर्वाण - ( शाश्वत आनन्द की प्राप्ति ) है ।
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/ धर्मो बन्धुश्च मित्रश्च धर्मोऽयं गुरुरङ्गिनाम् । तस्माद्धर्मे मतिं धत्स्व स्वर्मोक्षसुखदायिनि ॥
- आदिपुराण १०।१०६