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________________ २१ ६. असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवति । -स्थानांग अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए। सुयाणं धम्माणं ओगिण्हणयाए अवधारणयाएअब्भुट्ट्यव्वं भवति । -स्थानांग ८ सुने हुए धर्म को ग्रहण करने—उस पर आचरण करने को तत्पर रहना चाहिए। एगे चरेज्ज धम्म । -प्रन० २।३ भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए। धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे. अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो, सूसीइओ पजहामि दोसं ॥ -उत्त० १२०४६ धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है, आत्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है। जहाँ पर आत्मा स्नान कर कर्ममल से मुक्त हो जाता है। धणेण किं धम्मधुराहिगारे ? -उत्त० १४॥१७ धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है ? (वहां तो सदाचार की जरूरत है :) एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जइ अन्नमिहेह किंचि । -उत्त० १४१४० १०. ११.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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