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मानव-जीवन
५ तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा माणुसं भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुल पच्चायाति ।
-स्थानांग ३३ देवता भी तीन बातों की इच्छा करते हैं
मनुष्यजीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुलकी प्राप्ति । ६ जिह्व ! प्रह्वीभव त्वं सुकृति-सुचरितोच्चारणे सुप्रसन्ना,
भूयास्तामन्यकीति श्रु तिरसिकतया मेऽद्यकौँ सुकौँ । वीक्ष्याऽन्य प्रौढ़लक्ष्मी द्र तमुपचिनुतं लोचने ! रोचनत्वं, संसारेऽस्मिन्नसारे फलमिति भवतां जन्मनो मुख्यमेव ।।
-शान्तसुधारस, प्रमोदभावना १४ हे जीभ ! धार्मिको के दानादि गुणों का गान करने में अत्यन्त प्रसन्न होकर तत्पर रहो। कानो ! दूसरों की कीत्ति सुनने में रसिक होकर सुकर्ण (अच्छे कान) बनो । नेत्रों ! दूसरों की बढ़ती हुई लक्ष्मी को देखकर प्रसन्नता प्रकट करो। इस असार-संसार में जन्म पाने का तुम्हारे लिए यही मुख्य फल है।
स्वर्णस्थाले क्षिपति स रज. पाद शौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहयत्येन्धभारम् । चिन्तारत्नं विकिरति कराद् वायसोड्डायनाथ, यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मयंजन्मप्रमत्तः ।
- सिन्दूरप्रकरण ५ जो व्यक्ति आलस्य-प्रमाद के वश, मनुष्य जन्म को व्यर्थ गँवा रहा है, वह अज्ञानी मनुष्य सोने के थाल में मिट्टी भर रहा है, अमृत से पैर धो रहा है, श्रेष्ठ हाथी पर ईन्धन ढो रहा है और चिन्तामणि रत्न को काग उड़ाने के लिए फेंक रहा है।