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________________ १६ ११. १४. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ 1 संदिहानोगुरुमको पयन्नापृच्छेत् । सन्देह होने पर शिष्य इस प्रकार से पूछे कि, गुरु कुपित न हों । १२. विणयाहीया विज्जा देति फलं इह परे य लोगम्मि । न फलति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई || १५. नीतिवाक्यामृत ११ १५ १३. पुरिसम्मि दुब्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तियकण्ण हत्थस्स ।। निशीथ भा० ६२२१, बृह० भा० ७८२ जो व्यक्ति दुर्विनीत है, उसे सदाचार की शिक्षा नहीं देना चाहिए । भला जिसके हाथ पैर कटे हुए हैं, उसे कंकण और कुण्डल आदि अलंकार क्या दिए जाय ? -- बृह· भाष्य ५२०३ विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या लोक-परलोक में सर्वत्र फलवती होती है । विनयहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल के बिना धान्य की खेती । - अप्पत्तं च ण वातेज्जा, पत्तं च ण विमाणए । - निशीथभाष्य ६२३० अपात्र ( अयोग्य) को शास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए, और पात्र (योग्य) को उससे वंचित नहीं रखना चाहिए । सुस्सूसइ पडिपुच्छर, सुणइ गिलाइ ईहए वावि । ततो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा कम्मं ॥ -नदीसूत्र गाया ६५ विद्याग्रहणकरने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम - (२) पूछता है, (३) उत्तर को (५) तर्क-वितर्क से ग्रहण किये हुए अर्थ को तोलता है, (६) तोलकर निश्चय करता है, (१) सुनने की इच्छा करता है, सुनता है, (४) ग्रहण करता है,
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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