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जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ
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संदिहानोगुरुमको पयन्नापृच्छेत् ।
सन्देह होने पर शिष्य इस प्रकार से पूछे कि, गुरु कुपित न हों । १२. विणयाहीया विज्जा देति फलं इह परे य लोगम्मि । न फलति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई ||
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नीतिवाक्यामृत ११ १५
१३. पुरिसम्मि दुब्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तियकण्ण हत्थस्स ।। निशीथ भा० ६२२१, बृह० भा० ७८२ जो व्यक्ति दुर्विनीत है, उसे सदाचार की शिक्षा नहीं देना चाहिए । भला जिसके हाथ पैर कटे हुए हैं, उसे कंकण और कुण्डल आदि अलंकार क्या दिए जाय ?
-- बृह· भाष्य ५२०३ विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या लोक-परलोक में सर्वत्र फलवती होती है । विनयहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल के बिना धान्य की खेती ।
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अप्पत्तं च ण वातेज्जा, पत्तं च ण विमाणए ।
- निशीथभाष्य ६२३०
अपात्र ( अयोग्य) को शास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए, और पात्र (योग्य) को उससे वंचित नहीं रखना चाहिए । सुस्सूसइ पडिपुच्छर, सुणइ गिलाइ ईहए वावि । ततो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा कम्मं ॥
-नदीसूत्र गाया ६५
विद्याग्रहणकरने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम -
(२) पूछता है, (३) उत्तर को (५) तर्क-वितर्क से ग्रहण किये हुए अर्थ को तोलता है, (६) तोलकर निश्चय करता है,
(१) सुनने की इच्छा करता है, सुनता है, (४) ग्रहण करता है,