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________________ विद्यार्जन का मार्ग बहकाया हुआ व्यक्ति (व्युद्ग्राहित) उसे ठीक नहीं समझता अर्थात् उसे उल्टी समझता है। ६. विणओववेयस्स इह परलोगे वि विज्जाओ फलं पयच्छंति । -- निशीषचूणि १३ विनयशील साधक की विद्याएं, यहां, वहां (लोक-परलोक) में सर्वत्र सफल होती हैं। ७. आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति । इय सिद्धन्तरहस्सं, अण्णाहारं विणासेइ ।। -निशीथभाष्य ६२४३ मिट्टी के कच्चे घड़े में रखा हुआ जल जिसप्रकार उस घड़े को ही नष्ट कर डालता है, वैसे ही मन्दबुद्धि को दिया हुआ गम्भीर शास्त्र-ज्ञान, उसके विनाश के लिए ही होता है। तब्र यात् तत्परं पृच्छेत्, तत्परो तदिच्छेत् भवेत् । येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ।। -समाधिशतक ५३ वही बोलना चाहिए, वही दूसरों से पूछना चाहिए, उसीको इच्छा करनी चाहिए एवं उसी में तत्पर रहना चाहिए, जिससे अपना अविद्यामयरूप विद्यामय बन जाय । वरमज्ञान नाशिष्टजनसेवया विद्या। -नीतिवाक्यामृत १७१ ज्ञान शून्य रहना अच्छा है, लेकिन अशिष्टजनों की सेवा से विद्या प्राप्त करना ठीक नहीं है। १०. प्रज्ञयातिशयानो न गुरुमवज्ञायत । -नीतिवाक्यामृत ११।२० अधिक प्रज्ञावान् होने पर भी शिष्य गुरु की अवज्ञा न करे ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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