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देव-गुरु
जो एकान्त हितबुद्धि से जीवों को सभी शास्त्रों का सच्चा
अर्थ समझाता है, वह गुरु है। ११. अन्नं पुट्ठो अन्नं जो साहइ, सो गुरु न बहिरोव्व । न य सीसो जो अन्नं सुणेइ, परिभासए अन्नं ।
-विशेषा० भा० १४४३ बहरे के समान-शिष्य पूछे कुछ और बताए, कुछ और वह गुरु, गुरु नहीं है। और वह शिष्य भी शिष्य नहीं है, जो सुने
कुछ और, कहे कुछ और। १२. मसगोव्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भइ कुसीसो वि ।
-बृह० भा० ३५० जो कुशिष्य गुरु को, जाति आदि की निन्दा द्वारा मच्छर की तरह हर समय तंग करता रहता है, वह मच्छर की तरह ही
भगा दिया जाता है। १३, कामं परपरितावो असायहेतु जिणेहि पण्णत्तो । आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले स खलु ॥
-बृह० भा० २१०८ यह ठीक है कि जिनेश्वर देव ने पर-परिताप को दुख का हेतु बताया है, किन्तु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जाने वाला परिताप इस कोटि में नहीं है, चूकिं वह तो स्व-पर का हितकारी होता है।
न विना यानपात्रेण तरितु शक्यतेऽर्णवः । नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णवः ।
-आदिपुराण १७५ जैसे जहाज के विना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, वैसे ही गुरु के मार्ग दर्शन के विना ससार-सागर का पार पाना बहुत कठिन है।