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________________ ५. जैनधर्म की हजार शिक्षाएं वे गुरु, पिता व मित्र निन्दनीय या शत्र सदृश हैं जो ईर्ष्यावश अपने बहुदोषी शिष्य, पुत्र व मित्र के दोष दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं और उसे नैतिक शिक्षण नहीं देते। आचार्यस्यैव तज्जाड्यं, यच्छिष्योनावबुध्यते । गावो गोपालकेनैव, कुतीर्थे नावतारिताः॥ -अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिशिका ५ यदि शिष्य को ज्ञान नहीं होता तो वह आचार्य-गुरु की ही जड़ता है; क्योंकि गायों को कुघाट में उतारनेवाला वस्तुतः गोपाल ही है। रागहोस-विमुक्को सीयघरसमो य आयरिओ। -निशीथभाष्य २७९४ राग-द्वेष के विकल्प से मुक्त आचार्य शिष्यों के लिए शीतगृह (सब ऋतुओं में सुखदायी) के समान है। अणाबाहसुहाभिकंखी, गुरुप्पसायाभिमुहो रमिज्जा। -वशवकालिक ६।१।१० अनाबाध-मुक्तिसुखाभिलाषी शिष्य को गुरु की प्रसन्नता के लिये सदा प्रयत्न करना चाहिये । पितरमिव गुरुमुपचरेत् । -नीतिवाक्या० ११।२४ शिष्य गुरु के साथ पिता के समान व्यवहार करे। जं देइ दिक्खसिक्खा, कम्मक्खयकारणे सुद्धा । -बोधपाहुर १६ आचार्य वह है जो कर्म को क्षय करनेवाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध शिक्षा देता है। सत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते । -कुमारपाल प्रबन्ध ७. ६. १०.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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