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________________ २२ १ २ ३ वीतरागता विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो । - आचारांग ११२/२ जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्तपुरुष हैं। लोभमलोभेण दुगु छमाणे, लद्ध े कामे नाभिगाइ । - आचारांग १।२।२ जो लोभ के प्रति अलोभवृत्ति के द्वारा विरक्ति रखता है, वह और तो क्या, प्राप्त कामभोगों का भी सेवन नही करता है । अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एए नो य तीरं अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए । गमित्तए । २११ - आचारांग १।२।३ वे जो वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाए, नही तैर सकते । जो इन्द्रियजन्य कामभोगों को पार कर तट पर नहीं पहुंचे हैं, वे संसार - सागर के तट पर नहीं पहुंच सकते । ससार के प्रवाह को जो राग-द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार - सागर को पार नहीं हो सकते। "
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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