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________________ २१२ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं किमत्थि उवाही पासगस्स न विज्जइ? नत्थि ! -आचारांग ११३०४ वीतराग सत्यद्रष्टा को कोई उपाधि होती है या नहीं ? नहीं होती। न लोगस्सेसणं चरे। जस्स नत्थि इमा जाइ, अण्णा तस्स कओ सिया? -आचारांग ११४१ लोकपणा से मुक्त रहना चाहिए । जिसको यह लोकपणा नहीं है, उसको अन्य पाप-प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती हैं ? न सक्का न सोउसद्दा, सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । -आचारांग २।३।१२१३१ यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़नेवाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाए । अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगनेवाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। समाहियस्सग्गिसिहा व तेयसा, तवोय पन्ना य जस्सो य वड्ढइ । -आचारांग २।४।१६।१४० अग्निशिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहनेवाले अन्तलीन साधक के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं। . अणुक्कसे अप्पलीणे, मझेण मुणि जावए । -सूत्रकृतांग १।१।४।२ अहंकार रहित एवं अनासक्तभाव से मुनि को राग-द्वेष के प्रसंगों में ठीक बीच से तटस्थ यात्रा करनी चाहिए।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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