________________
वैराग्य-सम्बोधन
२०६ १५. अन्नस्स दुक्खं, अन्नो न परियाइयति ।
-सूत्रकृतांग २०१११३ कोई किसी दूसरे के दुःख को बटा नही सकता। १६, अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति एव कयबुद्धी। दुक्ख-परिकिलेसकर, छिद ममत्तं सरीराओ॥
-आवश्यकनियुक्ति १५४७ 'यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है।' साधक इस तत्त्वबुद्धि के
द्वारा दुःख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे। १७. जीवियं चेव रूवं च विज्जुसंपायचंचलं।
-उत्तराध्ययन १८।१३ जीवन और रूप बिजली की चमक की तरह चंचल हैं । १८. दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवंतमणुजीवंति, मयं नाणुव्वयन्ति य ।।
-उत्तराध्ययन १८११४ स्त्री, पुत्र, मित्र और बन्धुजन सभी जीते जी के साथी हैं । मरने
के बाद कोई किसी के पीछे नहीं जाता। १६. जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो ॥
-उत्तराध्ययन १९।१६ संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है। चारों और दुःख ही दुःख है। अतएव वहाँ प्राणी निरन्तर कष्ट
ही पाते रहते हैं। २०. जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गजलबिन्दुचंचलं जीवियं ।
-औपपातिक २३