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________________ २०८ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं ६. से मइमं परिन्नाय मा य ह लालं पच्चासी। -आचारांग ११२१५ विवेकी साधक लार-थूक चाटनेवाला न बने, अर्थात् परित्यक्त भोगों की पुनःकामना न करे । १०. विरागं रूवेहिंगच्छिज्जा, महया खुड्डएहिं य। -आचारांग ॥३॥३ महान् हों या क्षुद्र हों, अच्छे हों या बुरे हों, सभी विषयों से साधक को विरक्त रहना चाहिए। नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि । -आचारांग ११४२ मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो सकता। वण्णं जरा हग्इ नरस्स रायं। -उत्तराध्ययन १३।२६ हे राजन् ! जरा मनुष्य की सुन्दरता को ममाप्त कर देती है । उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी । -उत्तराध्ययन १३।६३ जैसे वृक्ष के फल जीर्ण हो जाने पर पक्षी उसे छोड़कर चले जाते हैं, वैसे ही पुरुष का पुण्य क्षीण होने पर भोग साधन उसे छोड़ देते हैं, उसके हाथ से निकल जाते हैं। १४. एगस्स गती य आगती। -सूत्रकृतांग ११२॥३॥१७ आत्मा (परिवार आदि को छोड़कर) परलोक में अकेला ही जाता है ब अकेला ही आता है। १२.
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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