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वैराग्य-सम्बोधन
२०७ सम्पदाओं से विरक्त होकर यदि सन्त उन्हे छोड़ते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि ग्लानि होने पर सुभुक्त-भोजन का
वमन हर एक ने किया है। ४.
वृत्त्यर्थं कर्म यथा, तदेवलोकः पुनः-पुनः कुरुते, एवं विरागवाता-हेतुर्गप पुनः-पुनश्चिन्त्यः ।
-उमास्वाति जिस काम से जीवन की वृत्ति चलती हो, उस काम को लोग जैसे पुनः पुनः करते है उसीप्रकार वैराग्य की बातों के हेतुओं का चिंतन भी पुनः-पुनः करते रहना चाहिए। जेण सिया तेण नो सिया।
-आचारांग १।२।४ तुम जिन (भोगो या वस्तुओ) से सुख की आशा रखते हो, वस्तुतः वे सुख के हेतु नहीं है। नत्थि कालस्स णागमो।
-आचारांग ११२।३ मृत्यु के लिए अकाल-वक्त-बेवक्त जैमा कुछ नहीं है । जीवियं दुप्पडिबूहंग।
-आचारांग १०२।५ नष्ट होते जीवन का कोई प्रतिव्यूह अर्थात् प्रतिकार नहीं है।
जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो।
-आचारांग १।२।५ यह शरीर जैसा अन्दर में (असार) है, वैसा ही बाहर में (असार) है, जैसा बाहर में (असार) है, वैसा अन्दर में (असार) है ।