SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैराग्य-सम्बोधन जाव-जाव लोएसणा, ताव-ताव वित्तेसणा। जाव-जाव वित्त सणा, ताव-ताव लोएसणा। से लोएसणं च वित्त सणं च परिन्नाए गोपहेणं गच्छेजा, णो महापहेणं गच्छेज्जा-जन्नवक्केणं अरहंता इसिणा बुइयं । -ऋषिभाषितानि १२१ जब तक लोकषणा (प्रसिद्धि की कामना) है, तब तक वित्तपणा (सम्पत्ति की कामना) है और जब तक वित्तपणा है, तब तक लोकेषणा है । साधु को चाहिए कि इन दोनों को समझकर गोपथ से गमन करे, किन्तु महापथ से नहीं ! याज्ञवल्क्य-आर्हतपि ने ऐसे कहा है। २. से ण हासाए ण कीड्डाए, ण रतीए ण विभूसाए । - आचारांग १।२।१ वृद्ध हो जाने पर मनुष्य न हास-परिहास के योग्य रहता है, न क्रीड़ा के, न रति के और न शृंगार के योग्य ही । विरज्य संपदः सन्त-स्त्यजन्ति किमिहाद्भुतम् । नावमीत् किं जुगुप्सावान्, सुभृक्तमपि भोजनम् ।। -आत्मानुशासन १०३ २०६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy