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पुण्य-पाप
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चरिया पमादबहुला, कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । परपरितापवादो, पावस्स य आसवं कुणदि || - पंचास्तिकाय १३६
प्रमादबहुलचर्या, मन की कलुषता, विषयो के प्रति लोलुपता, परपरिताप ( परपीड़ा) और परनिन्दा – इनसे पाप का आश्रव ( आगमन) होता है ।
पामयति पातयति वा पापं ।
- उत्तराध्ययन चूर्ण २
जो आत्मा को बांधता है, अथवा गिराता है, वह पाप है ।
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पुन्नं मोक्खगमणविग्धाय हवति ।
- निशीथचूर्ण ३३२६
परमार्थ दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति में विघातक - बाधक है । न हु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियत्थिस्स ।
-मरणसमाधि ६१३ जैसे कि जीवितार्थी के लिए विप हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं हैं ।
संसारसंतईमूलं, पुण्णं पावं पुरेकडं ।
ऋषिभाषितानि |२
पूर्वकृत पुण्य और पाप ही संसार परम्परा का मूल है ।
हेमं वा आयसं वानि. बंधणं दुक्खकारणा । महग्घस्सावि दंडस्स, णिवाए दुक्खसंपदा ||
- ऋषिभाषितानि ४५।५
बन्धन चाहे सोने का हो या लोहे का, बन्धन तो आखिर दुःखकारक ही है । बहुत मूल्यवान दण्ड (डंडे ) का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही है !