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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं मनुष्य के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं । ५. जह वा विसगडूसं कोई घेत्तूण नाम तुण्हिक्को। अण्णण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा !
-सूत्रकृतांगनियुक्ति ५२ जिस प्रकार कोई चूपचाप लुक-छिपकर विप पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नही मरेगा ? अवश्य मरेगा। उसीप्रकार जो छिपकर पाप करता है तो क्या वह उससे दूपिन नहीं होगा ? अवश्य होगा। कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्म चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसील, जं संसारं पवेसदि ।
-समयसार १४५ अशुभकर्म बुरा (कुशील) और शुभ कर्म अच्छा (सुशील) है, यह साधारण जन मानते है। किन्तु वस्तुत जो कर्म प्राणी को ससार में परिभ्रमण कराता है, वह अच्छा कैसे हो सकता है ? अर्थात्
शुभ या अशुभ कर्म अन्ततः हेय ही है। ___ सुह परिणामो पुण्ण, असुहो पावं ति हवदि जीवस्स ।
–पंचास्तिकाय १३२ आत्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है, और अशुभ परिणाम
पाप है। ८. रागो जस्स पसत्थो, अणुकंपामसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णत्थि कलुस, पुण्णं जीवस्स आमवदि ।।
- - पंचास्तिकाय १३५ जिसका राग प्रशस्त है, अन्तर में अनुकम्पा की वृत्ति है और मन में कलुषभाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आश्रव होता है ।