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राग-द्वेष
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दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेद्यः सतामपि ।
-वीतरागस्तोत्र दृष्टिराग अर्थात् अपने पंथ का अंधविश्वास महापापी है और सत्पुरुषों के लिए भी दुस्त्याज्य है।
यं दृष्ट्वा वर्धते स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते ।। स विज्ञ यो मनुष्येण, ममैष पूर्वमित्रकः ।।
-चन्दचरित्र पृष्ठ ८२ जिसे देखकर स्नेह की वृद्धि एवं क्रोध की शान्ति हो, उसे अपना
पूर्वजन्म का मित्र समझना चाहिए। ७. रत्तो बंधदि कम्मं, मुचदि जीवो विरागसपत्तो।
-समयसार १५० जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है । और विरक्त होकर कर्मों
से मुक्त होता है। ६. ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि ।
। समयसार २६५ कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग और द्वेप के अध्यवसाय--संकल्प से
होता है। ६. असुहो मोह-पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो।
--प्रवचनसार २।८८ मोह और द्वेप अशुभ ही होते है। गग शुभ और अशुभ दोनों
होता है। १०. जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे ।
बृहत्कल्पभाष्य २५१५ राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्म बन्ध होता है।