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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गइं।
-उत्तराध्ययन ६५३ काम-भोग की लालमा ही लालसा में प्राणी, एक दिन उन्हें बिना भोगे दुर्गति में चला जाता है। सव्वे कामा दुहावहा ।
-उत्तराध्ययन १३.१६ सभी काम-भोग अन्ततः दुःखावह (दुःखद) ही होते हैं । अज्झत्थ हेउनिययस्स बंधो।
-उत्तराध्ययन १४३१६ अन्दर के विकार ही वस्तुत: बन्धन के हेतु हैं ।
उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ।
-उत्तराध्ययन २५॥४१ जो भोगी (भोगामक्त) है, वह कर्मों से लिप्त होता है। और जो अभोगी हैं, भोगासक्त नहीं है, वह कर्मो से लिप्त नही होता। भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है। भोगों में अनासक्त ही
संसार से मुक्त होता है। १०. विरत्ता हु न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ।
--उत्तराध्ययन २५१४३ मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी चिपकता नहीं है, अर्थात् आसक्त नहीं होता । और न उसके रागरहित भावों
में कर्मबध ही होता है । ११. उक्कामयंति जीवं, धम्माओ तेण ते कामा ।
-वशवकालिकनियुक्ति १६४ शब्द आदि विषय आत्मा को धर्म से उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते हैं, अतः इन्हें 'काम' कहा है।