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अनासक्ति
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जिसकी मति, काम (वासना) से मुक्त है, वह शीघ्र ही संसार से
मुक्त हो जाता है। १०. णहि णिरवेक्खो चागो.
__ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी। अविसुद्धस्स हि चित्ते. कहं णु कम्मक्खओ होदि ।।
-प्रवचनसार ३२० जब तक निरपेक्ष (आशा-प्रत्याशारहित) त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नही होती है । और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नही होती है, तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ?
तण-कठेहि व अग्गी, लवणजलो व नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउ कामभोगे।
-आतुर-प्रत्याख्यान ५० जिस प्रकार तृण व काष्ठ से अग्नि, तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नही होता है, उसी प्रकार रागासक्त आत्मा कामभोगों से कभी तृप्त नही हो पाता। विणीय तण्हो विहरे।
-दशवकालिक ८६० तृष्णा से मुक्त होकर विचरना चाहिए। मेहावी अप्पणो गिद्धिमुद्धरे।
-सूत्रकृतांग ८।१३ गृद्धि-आसक्ति से अपने को उबारना बचाना चाहिए। १४. से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए य अंतए ।
-सूत्रकृतांग १५।१४
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