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५.
७.
८.
१०.
जैनधर्म की हजार शिक्षाए
सण विप्पमाण पुढो वयं पकुव्वह ।
मनुष्य अपनी ही भूलों से संसार को विचित्र स्थितियों में फंस जाता है।
- आचारांग ११२/६
सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स णत्थि भयं
।
- आचारांग १।३।४
प्रमत्त को सब ओर से भय रहता है । अप्रमत्त को किसी भी ओर से भय नहीं है ।
उठिए नो पमायए !
-- आचारांग १।५।२
जो कर्तव्य पथ पर खड़ा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
चतुर वही है, जो प्रमाद न करे ।
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं ।
-सूत्रकृतांग १/८/३ प्रमाद को कर्म - आश्रव ( कर्म का हेतु) और अप्रमाद को अकर्म -संवर कहा है ।
जे छे से विप्पमायं न कुज्जा ।
- सूत्रकृतांग १।१४।१
जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं
नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव अणारंभा ।
- भगवती १।१
आत्मसाधना में अप्रमत्त रहनेवाले साधक न अपनी हिंसा करते हैं न दूसरों की, वे सर्वथा अनारम्भ-अहिंसक रहते हैं ।