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अप्नमाद्र
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अप्पमत्तो जये निच्चं ।
-शवकालिक ८।१६ सदा अप्रमत्तभाव से साधना में यत्नशील रहना चाहिए । १२. घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खो व चरेऽप्पमत्ते।
-उत्तराध्ययन ४॥६ समय बड़ा भयंकर है, और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है। अतः साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारंडपक्षी (सतत सतर्क रहनेवाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए। सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी।
-उत्तराध्ययन ४६ प्रबुद्ध साधक सोये हुओं (प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृतअप्रमत्त रहे।
मज्ज विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । इअ पंचविहो ऐसो होई पमाओ य अप्पमाओ ।
-उत्तराध्ययननियुक्ति १८० मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा (अर्थहीन राग-द्वं पवर्द्धक वार्ता) यह पांच प्रकार का प्रमाद है । इनसे विरक्त होना ही अप्रमाद है।
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१५. अप्पमत्तस्स णत्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुजमाणस्स वा।
-आचारांगचूणि १।३।४ अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खड़े होते, खाते, कहीं भी कोई भय नहीं है।