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________________ अप्नमाद्र १७५ अप्पमत्तो जये निच्चं । -शवकालिक ८।१६ सदा अप्रमत्तभाव से साधना में यत्नशील रहना चाहिए । १२. घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खो व चरेऽप्पमत्ते। -उत्तराध्ययन ४॥६ समय बड़ा भयंकर है, और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है। अतः साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारंडपक्षी (सतत सतर्क रहनेवाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए। सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी। -उत्तराध्ययन ४६ प्रबुद्ध साधक सोये हुओं (प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृतअप्रमत्त रहे। मज्ज विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । इअ पंचविहो ऐसो होई पमाओ य अप्पमाओ । -उत्तराध्ययननियुक्ति १८० मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा (अर्थहीन राग-द्वं पवर्द्धक वार्ता) यह पांच प्रकार का प्रमाद है । इनसे विरक्त होना ही अप्रमाद है। १४. १५. अप्पमत्तस्स णत्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो भुजमाणस्स वा। -आचारांगचूणि १।३।४ अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खड़े होते, खाते, कहीं भी कोई भय नहीं है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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