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अप्रमाद
१. जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे त्ति पवुच्चति ।
-- आचारांग १।१४ जो प्रमत्त है, विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवों को दण्ड (पीड़ा) देनेवाला होता है।
तं परिण्णाय मेहावी. इयाणिं णो, जमहं पुत्वमकासी पमाएणं ।
-आचारांग १।१४ मेधावी साधक को आत्म-ज्ञान के द्वारा यह निश्चय करना चाहिये कि-''मैंने पूर्व जीवन में प्रमाद वश जो कुछ भूलें की हैं, वे अब
कभी नहीं करूंगा।" ३. अंतरं च खलु इमं संपेहाए, धीरो मुहत्तमवि णो पमायए।
-आचारांग २२१ अनन्त जीवन-प्रवाह में मानव-जीवन को बीच का एक सुअवसर
जान कर, धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे। ४. अलं कसलस्स पमाएणं!
-आचारांग ११२।४ बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
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