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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं
गंथेहिं विवितेहि, आउकालस्स पारए ।
-आचारांग ११८८।११ साधक को अन्दर और बाहर सभी प्रन्थियों (बन्धन रूप गांठों) से मुक्त होकर जीवनयात्रा पूर्ण करनी चाहिए।
सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ।
-सूत्रकृतांग १२२१७ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है।
सव्वं जगं तु समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा।
-सूत्रकृतांग १.१०१६ समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी अपने पराये की भेद बुद्धि से परे होता है।
वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो राग दोसेहि समो स पूज्जो।
-दशवकालिक ६।३।११ जो अपने को अपने से जानकर राग-द्वेप के प्रसंगों में सम रहता है, वही साधक पूज्य है।
लाभा लाभे मुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदा पंससासु, समो माणावमाणओ।
-उत्तराध्ययन १९९१ जो लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है वही वस्तुतः मुनि है।