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________________ १६० जैनधर्म की हजार शिक्षाएं गंथेहिं विवितेहि, आउकालस्स पारए । -आचारांग ११८८।११ साधक को अन्दर और बाहर सभी प्रन्थियों (बन्धन रूप गांठों) से मुक्त होकर जीवनयात्रा पूर्ण करनी चाहिए। सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए । -सूत्रकृतांग १२२१७ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है। सव्वं जगं तु समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा। -सूत्रकृतांग १.१०१६ समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी अपने पराये की भेद बुद्धि से परे होता है। वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो राग दोसेहि समो स पूज्जो। -दशवकालिक ६।३।११ जो अपने को अपने से जानकर राग-द्वेप के प्रसंगों में सम रहता है, वही साधक पूज्य है। लाभा लाभे मुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदा पंससासु, समो माणावमाणओ। -उत्तराध्ययन १९९१ जो लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है वही वस्तुतः मुनि है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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