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१.
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उवेह एणं बहिया य लोगं,
से सव्व लोगम्मि जे केइ विण्ण ।
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समभाव
- आचारांग १|४|३
अपने धर्म से विपरीत रहनेवालों के प्रति भी उपेक्षाभाव [मध्यस्थता का भाव ] रखो | अर्थात् जो कोई विरोधियों के प्रति उपेक्षा [ तटस्थता ] रखता है, वह समग्र विश्व के विद्वानों में अग्रणी विद्वान् है ।
नाभिकंखिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओ विन सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा ।।
सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्भ न केणइ ।
- नियमसार १०२
सब प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं है ।
जीवियं
- आचारांग १|८|८|४
साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनों में ही किसी तरह की आसक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे ।
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