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________________ ८ १. ?, उवेह एणं बहिया य लोगं, से सव्व लोगम्मि जे केइ विण्ण । の समभाव - आचारांग १|४|३ अपने धर्म से विपरीत रहनेवालों के प्रति भी उपेक्षाभाव [मध्यस्थता का भाव ] रखो | अर्थात् जो कोई विरोधियों के प्रति उपेक्षा [ तटस्थता ] रखता है, वह समग्र विश्व के विद्वानों में अग्रणी विद्वान् है । नाभिकंखिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओ विन सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा ।। सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्भ न केणइ । - नियमसार १०२ सब प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसी से मेरा वैर नहीं है । जीवियं - आचारांग १|८|८|४ साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनों में ही किसी तरह की आसक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे । १५६
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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