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________________ अज्ञान १५७ १५, जं अण्णाणी कम्म, खवेदि भवसयसहस्स-कोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ -प्रवचनसार ३१३८ अज्ञानी साधक बाल तप के द्वारा लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म मन, वचन, काया को संयत रखनेवाला ज्ञानी साधक एक श्वास मात्र में खपा देता है । १६. जह हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। सुट्ठ वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ । -बृहत्कल्पभाष्य ११४७ जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत सी धूल अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्ममल संचय करता जाता है। १७. ण केवलं वयवालो"कज्जं अयाणओ बालो चेव । -आचारांगचूणि १।२।३ केवल अवस्था से ही कोई बाल (बालक) नहीं होता, किन्तु जिसे अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है वह भी 'बाल' ही है । भावे णाणावरणातीणि पंको। - निशीथचूणि ७० भाव दृष्टि से ज्ञानावरण (अज्ञान) आदि दोप आभ्यन्तर-पंक हैं। १६. अगोअत्यस्स वयणेणं अमयंपि न घुटए । -गच्छाचारपइण्णा ४६ अगीतार्थ-अज्ञानी के कहने में अमृत भी नहीं पीना चाहिये । २०. अण्णाणं परमं दुवखं, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसागे, विविहो सव्वदेहिणं ।। -ऋषिभासित २१११
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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