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अज्ञान ५. एवं तक्काइ साहिता, धम्माधम्मे अकोविया। दुक्खं ते नाइतुट्टति, सउणी पंजरं जहा ॥
-सूत्रकृतांग १।१।२।२२ जो धर्म और अधर्म से सर्वथा अनजान व्यक्ति केवल कल्पित तर्को के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्मबन्धन को तोड़ नहीं सकते, जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं
तोड पाता है। ६. सयं सयं पसंसंता. गरहंता परं वयं । जे उ त्तत्थ विउस्सन्ति, संसारं ते विउस्सिया।
-सूत्रकृतांग १।१।२।२३ जो अपने मत की प्रशंसा, दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पांडित्य दिखाते हैं, वे एकान्तवादी संसारचक्र में भटकते ही रहते हैं।
जहा अस्माविणि णावं, जाइअंधो दुरूहिया। इच्छड पारमागंतु अंतग य विसीयई ॥
-सूत्रकृतांग ११११२३३१ अज्ञानी साधक उम जन्मांधव्यक्ति के समान है, जो छिद्रवाली नौकापर चढ़कर नदी के किनारे पहुंचना तो चाहता है, किन्तु किनारा आने से पहले ही बीच-प्रवाह में डूब जाता है। समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ?
-सूत्रकृतांग १११।१३।१० जो दुःखोत्पत्ति का कारण ही नहीं जानते, वह उसके निरोध का
कारण कैसे जान पायेंगे? ६. अन्नाणी किं काही, किंवा नाही सेयपावगं?
-दशवकालिक ४।१०