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आत्म-स्वरूप
३१. इंदो जीवो सव्वोवलद्धि भोगपरमेसरत्तणओ ।
३२.
३३.
३४.
३५.
- विशेषावश्यक० २६६३
सब उपलब्धि एवं भोग के उत्कृष्ट ऐश्वर्य की प्राप्ति होने के कारण प्रत्येक जीव इन्द्र है |
जो अहंकारो भणितं अप्पलक्खणं ।
- आचारांगण १।१।१
यह जो अन्दर में 'अह' की — 'मैं' की— चेतना है यह आत्मा का
लक्षण है ।
यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा ।
- निशीथचूर्ण ३३३२
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जहां आत्मा है, वहाँ उपयोग (चेतना) है, जहाँ उपयोग है वहाँ
आत्मा है ।
अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि ।
--- ज्ञाताधर्मकथा १।५
मैं ( आत्मा ) अव्यय = अविनाशी हूं, अवस्थित एकरस हूं |
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संकप्पमओ जीओ, मुखदुक्खमयं हवेइ संकप्पो ।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा १८४
जीव सकल्पमय है, और सकल्प सुखदुःखात्मक है ।