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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है । सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है, और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही
शत्रु है। १५. कह सो घिप्पइ अप्पा ? पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा ।
-समयसार २९६ यह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेद-विज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता
है।
१६. आदा खु मज्झ णाणं, आदा मे दंसणं चरित्तं च ।
-समयसार २७७ मेरा अपना आत्मा ही ज्ञान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र
१७. उवओग एव अहमिक्को।
-समयसार ३७ मैं (आत्मा) एकमात्र उपयोगमय =ज्ञानमय हूं। १८. अहमिकको खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदा म्वी।
ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तंपि ।
-समयसार ३८
आत्मद्रप्टा विचार करता है कि- "मै तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप सदाकाल अमूर्त एवं शुद्ध शाश्वत तत्व हूं, परमाणु मात्र भी अन्य
द्रव्य मेरा नही है।" १६. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करोदि । वेदयइि पुणो तं चेव, जाण अत्ता दु अत्ताणं ।
. -समयसार ५३ निश्चयदृष्टि से आत्मा अपने को ही करता है, और अपने को ही भोगता है।