SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उद्बोधन १२३ ५. सेणे जहा वट्यं हरे, आउक्खयम्मि तुई। -सूत्रकृतांग १।२।११२ एक ही झपाटे में बाज जैसे बटेर को मार डालता है, वैसे ही आयु क्षीण होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेता है। नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। -सूत्रकृतांग ११२।१।३ मरने के बाद सद्गति सुलभ नहीं है। (अत: जो कुछ सत्कर्म करना है, यही करो। ७. अत्तहियं खु दुहेण लब्भई। -सूत्रकृतांग श२।२।३० आत्महित का अवसर मुश्किल से मिलता है । मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेही अणमास अप्पगं । -सूत्रकृतांग ११२।३।७ भविष्य में तुम्हें कष्ट भोगना न पड़े, इसलिए अभी से अपने को विषय-वामना से दूर रखकर धर्म से अनुशामित करो। ६. न य मंखयमाहु जीवियं । -सूत्रकृतांग ११२।३।१० जीवन-मूत्र टूट जाने के बाद फिर नही जुड़ पाता है । १०. बोही य से नो मुलहा पुणो पुणो। -दशवैकालिकचूलिका १११४ सद्बोध प्राप्त करने का अवसर बार-बार मिलना सुलभ नहीं है । ११. चइज्ज देहं, न हु धम्मसासणं । --दशवकालिकचूलिका १११७ देह को (आवश्यक होने पर) भले छोड़ दो, किन्तु अपने धर्म शासन को मत छोड़ो।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy