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________________ वाणी-विवेक ११७ १७. अणुवीइभासी से निग्गंथे । -आचारांग २।३।१५।२ जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निम्रन्थ है। १८ अणुणवीटभासी से निग्गये समावइज्जा मोसं वयणाए । -आचारांग २।३।१।२ जो विचारपूर्वक नही बोलता है उसका वचन कभी न कभी असत्य से दूषित हो सकता है। १६. अचिंतिय वियागरे । -सूत्रकृतांग १।२५ जो कुछ बोले-पहले विचार कर बोले । जं छन्नं तं न वत्तव्यं । -सूत्रकृतांग १९२६ किमी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो नही कहना चाहिए । २१. तुम तृमंति अमणुन्न, सव्वसो तं न वनए । -सूत्रकृतांग १२७ 'तू-तू - जैसे अभद्र शब्द कभी नहीं बोलना चाहिए। २२. विभज्जवाय त्र वियागरेज्जा। -सूत्रकृतांग १११४१२२ विचारशील पुरुप सदा विभज्यवाद अर्थात् म्याद्वाद से युक्त वचन का प्रयोग करें। २३. निरुद्धग वावि न दोहईज्जा । --सूत्रकृतांग १११४१२३ थोडे से मे कही जानेवाली वात को व्यर्थ ही लम्बी न करे। नाइवेल वएज्जा। -सूत्रकृतांग १।१४।२५ साधक आवश्यकता से अधिक न बोले ।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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