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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं कुशलवचन (निरवद्य-वचन) बोलनेवाला वचनसमिति का भी पालन करता है और वचनगुप्ति का भी। णेहरहितं तु फरुसं।
-निशीथभाष्य २६०८ म्नेह से रहित वचन 'परुप-कठोर' वचन कहलाता है। १३. वयणं विण्णाणफल, जइ तं भणिएऽवि नत्थि किं तेण?
--विशेषावश्यकभाष्य १५१३ वचन की फलश्रुति है-अर्थज्ञान ! जिम तचन के बोलने से अर्थ का ज्ञान नही हो तो उस वचन से क्या लाभ ?
जं भासंभासंतम्स सच्चं मोसं वा चरित्तं विसुज्झइ, सव्वा वि मा सच्चा भवति । जं पुण भासमाणस्स चरित्तं न सुज्झति, सा मोसा भवति ।
-दशवकालिक चूणि ७ जिस भापा को वोलने पर-चाहे वह सत्य हो या असत्यचारित्र की शुद्धि होती है तो वह सत्य ही है, और जिस भाषा के बोलने पर-चारित्र की शुद्धि नही होती, चाहे वह सत्य ही क्यों न हो, अमन्य ही है। अर्थात साधक के लिए शब्द का
महत्व नही, भावना का महत्व है। १५. हिदमिदवयणं भामदि संतोमकरं तु सव्वजीवाणं ।
–कार्तिकेय० ३३४ माधक दूसरों को मंतोप देनेवाला हितकारी और मित–सक्षिप्त वचन बोलता है। नो वयणं फम्स वइज्जा।
-आचारांग २०१६ कठोर-कटुवचन न बोले।