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________________ १०८ जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १८ विनीत, १६ कृतज्ञ (किए उपकार को समझनेवाला, २० परहित करनेवाला, २१ लब्धलक्ष्य (जिसे लक्ष्य की प्राप्ति प्रायः हो गई हो।) कयवयकम्मो तह सीलवं, गुणवं च उज्जववहारी। गुरु सुस्सूसो पवयण-कुसलो खलु सावगो भावे ।। . धर्मरत्नप्रकरण ३३ (१) जो व्रतों का अनुष्ठान करनेवाला है, शोलवान है, (२) स्वाध्याय-तप-विनय आदि गुणयुक्त है, (३) सरल व्यवहार करनेवाला है, (४) सद्गुरु की सेवा करनेवाला है, (५) प्रवचनकुशल है, वह 'भावश्रावक' है। श्रद्धालुतां श्रातिपदार्थचिन्तनाद्, धनानि पात्रषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना दतोपि तं श्रावकमाहुरुत्तमा : ।। -श्राविधि, पृष्ठ ७२, श्लोक ३ १ शील का स्वरूप इस प्रकार है (१) धार्मिकजनों युक्त स्थान में रहना । (२) आवश्यक कार्य के बिना दूसरे के घर न जाना, (३) भड़कीली पोशाक नहीं पहनना, (४) विकार पैदा करनेवाले वचन न बोलना, (५) धूत आदि न खेलना, (६) मधुरनीति से कार्यसिद्धि करना। इन छः शीलों से युक्त श्रावक शीलवान होता है।
SR No.010229
Book TitleJain Dharm ki Hajar Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1973
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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