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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १८ विनीत, १६ कृतज्ञ (किए उपकार को समझनेवाला, २० परहित करनेवाला, २१ लब्धलक्ष्य (जिसे लक्ष्य की प्राप्ति प्रायः हो गई हो।)
कयवयकम्मो तह सीलवं, गुणवं च उज्जववहारी। गुरु सुस्सूसो पवयण-कुसलो खलु सावगो भावे ।।
. धर्मरत्नप्रकरण ३३ (१) जो व्रतों का अनुष्ठान करनेवाला है, शोलवान है, (२) स्वाध्याय-तप-विनय आदि गुणयुक्त है, (३) सरल व्यवहार करनेवाला है, (४) सद्गुरु की सेवा करनेवाला है, (५) प्रवचनकुशल है, वह 'भावश्रावक' है।
श्रद्धालुतां श्रातिपदार्थचिन्तनाद्, धनानि पात्रषु वपत्यनारतम् । किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवना दतोपि तं श्रावकमाहुरुत्तमा : ।।
-श्राविधि, पृष्ठ ७२, श्लोक ३
१ शील का स्वरूप इस प्रकार है
(१) धार्मिकजनों युक्त स्थान में रहना । (२) आवश्यक कार्य के बिना दूसरे के घर न जाना, (३) भड़कीली पोशाक नहीं पहनना, (४) विकार पैदा करनेवाले वचन न बोलना, (५) धूत आदि न खेलना, (६) मधुरनीति से कार्यसिद्धि करना। इन छः शीलों से युक्त श्रावक शीलवान होता है।