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आहार-विवेक
१. तहा भोत्तव्वं जहा से जाया माता य भवति, न य भवति विन्भमो, न भंसणा य धम्मस्स ।
-प्रश्नव्याकरण २४ ऐसा हित = मित भोजन करना चाहिए, जो जीवनयात्रा एवं संयम यात्रा के लिए उपयोगी हो सके, और जिससे न किसी प्रकार
का विभ्रम हो और न धर्म की भ्रंसना । २. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ।
-ओपनियुक्ति ५७८ जो मनुष्य हितभोजी, मितभोजी एवं अल्पभोजी हैं, उसको वैद्यों की चिकित्मा की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने-आप ही
अपने चिकित्मक (वैद्य) होते हैं। ॐ कालं क्षेत्र मात्रां स्वात्म्यं द्रव्य-गृरुलाघवं स्ववलम् । ज्ञात्वा योभ्यवहार्य, भुङ्क्त कि भेषजस्तस्य ।।
--प्रशमरति १३७ जो काल, क्षेत्र, मात्रा, आत्मा का हित, द्रव्य की गुरुता-लघुता एवं अपने वल का विचार कर भोजन करता है, उसे दवा की जरूरत नहीं रहती।