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जैनधर्म की हजार शिक्षाएं १३. अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अन्तरा ।
-वशवकालिक ८४७ बिना पूछे व्यर्थ किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए । १४. पिट्ठिमंसं न खाइज्जा ।
-दशवकालिक ८।४७ किसी की चुगली खाना-पीठ का मांस नोचने के समान है, अतः
किसी की पीठ पीछे चुगली नहीं खाना चाहिए। १५. खुड्डेहि सह संसग्गि, हासं कीडं च वज्जए ।
-उत्तराध्ययन १९ क्ष द लोगों के साथ सम्पर्क, हंसी, मजाक, क्रीड़ा आदि नहीं
करना चाहिए। १६. न सिया तोत्तगवेसए।
-उत्तराध्ययन ११४० दूसरो का छल-छिद्र नही देखना चाहिए । १७. सरिसो होइ बालाणं ।
-उत्तराध्ययन २।२४ बुरे के साथ बुरा होना बचकानापन (बालकपन) है। १८. जोइति पक्क न उ पक्कलेणं,
ठावेति तं सूरहगस्स पासे । एक्काम खंभम्मि न मत्तहत्थो, वझति वग्घा न य पंजरे दो।
-बृहस्कल्पमाष्य ४४१० पक्व (झगड़ालू) को पक्व (झगड़ालू) के साथ नियुक्त नही करना चाहिए, किन्तु शान्त के साथ रखना चाहिए, जैसे कि एक खम्भे से दो मस्त हाथियो को नही बाधा जाता है और न एक पिजड़े मे दो सिंह रखे जाते है।