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सदाचार
३३.
३४,
३५.
६५
वाया ए अहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगा होंति । - भगवती आराधना ३६६
श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नही, किन्तु सच्चरित्र से ही प्रकट करते है ।
किच्चा परस्स णिदं, जो अप्पाण ठवेदुमिच्छेज्ज । सो इच्छदि आरोग्गं, परम्म कडुओस हे पीए ।
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भगवती आराधना ३७१
को गुणवान प्रस्थापित करना
जो दूसरो की निन्दा करके अपने चाहता है वह व्यक्ति दूसरो को कड़वी औषधि पिलाकर स्वयं रोगरहित होने की इच्छा करता है ।
दट्ठण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ । - भगवती आराधना ३७२
सत्पुरुष दूसरे के दोष देखकर स्वयं मे लज्जा का अनुभव करता है । ( वह कभी उसे अपने मुँह से नही कह पाता ।)