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जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ चरणपडिवतिहेठ धम्मकहा ॥
-ओघनियुक्ति भाष्य ७ आचाररूप सद्गुणो की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती
२६. मा णं तुमं पदेसी! पुव्वं रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमणिज्जेभवेज्जासि ।
-राजप्र० ४१८२ हे राजन्! तुम जीवन के पूर्वकाल मे रमणीय होकर उत्तर काल मे
अरमणीय मत बन जाना। ३०. सुभासियाए भासाए सुकडेण या कम्मुणा । पज्जण्णे कालवासी वा जसं तु अभिगच्छति !
-ऋषिभाषित ३३४ जो वाणी से सदा सुन्दर बोलता है और कर्म से सदा सदाचरण करता है, वह व्यक्ति समय पर बरसनेवाले मेघ की तरह सदा
प्रशंसनीय और जनप्रिय होता है। ३१. गाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगंता ।
-सन्मतितर्क ३१६८ क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनो ही एकात है, (फलतः जैनदर्शन सम्मत नही है)।
सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे वि खमकरणं । सव्वेसिं गुणगणं, मदंकसायाण दिट् ठता ।।
-कार्तिकेय ६१ सब जगह प्रियवचन बोलना, दुर्वचन बोलने पर भी उसे क्षमा करना, और सब' के गुण ग्रहण करते रहना- यह मदेकषायी (शान्त स्वभावी) आत्मा के लक्षण है ।
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